लोगों की जीवन शैली बदलने के साथ खानपान की शैली भी बदल रही है। दूध और मीट के रूप में लोगों की प्रोटीन की मांग तेजी से बढ़ रही है। जबकि सूखी घास पलने वाले पशुओं से भारत में दूध और मीट कम मिल पाता है। यहाँ ऐसे पौष्टिक पशुचारे की जरूरत पैदा होती है जिससे पशुओं को दूध व मीट ज्यादा मिल सके। अभी हाल में गुनिया घास की एक नई प्रजाति तैयार की गई है। जिससे ज्यादा पैदावार हासिल की जा सकती है। इसमें प्रोटीन की मात्रा भी ज्यादा है। किसान इस हरे चारे की पैदावार करके न सिर्फ अपने पशुओं से ज्यादा दूध पा सकते है बल्कि खुले बाजार में भी इसकी बिक्री कर सकते है क्योंकि इसकी अच्छी मांग रहती है। भारत पशुधन और दुग्ध उत्पादन के मामले में दुनिया में पहले स्थान पर है। भारत में दुनियाभर का 15 फीसदी पशुधन मौजुद है। लेकिन प्रति पशु प्रोटीन ( दुग्ध व मीट के रूप में ) बहुत कम है। दरअसल भारत में पशुधन को पोषक तत्वों से भरपूर भोजन नहीं मिल पाता है। इसी कारण उनसे प्रोटीन प्राप्ति की दर काफी नीचे होती है। आज भी देश में ज्यादातर पशुओं को भोजन के नाम पर केवल सूखा भूसा ही खिलाया जाता है। जबकि दूधारू पशुओं के लिए हरे चारे की सबसे ज्यादा आवश्यकता होती है। हरे चारे के साथ पोषक भोजन खिलाने पर पशुओं की दूध देने की क्षमता बढ़ती है। देश के ज्यादातर पशुओं को आवश्यक पोषक तत्व भोजन नहीं मिल पाते है। जिसकी वजह से उनकी दूध देने की क्षमता सीमित ही रहती है। ज्ञात हो कि बेहतर प्रोटीन प्राप्ति के लिए जरूरी है कि पशुओं को पोषक तत्वों से भरपूर चारा खिलाया जाये। चुँकि अब प्रोटीन की मांग तेजी से बढ़ रही है इसलिए पशुपालक भी अब इस दौर से निकलने की कोशिश कर रहे हैं। पशुपालकों को पशुओं को खिलाने के लिए वाजिब दाम पर पोषक चारे की जरूरत है। इसीलिए पोषक तत्वों से भरपूर पशु चारे की मांग भी लगातार बढ़ती जा रही है। देश में लगभग करीब 12 लाख हैक्टेयर क्षेत्रफल में ही स्थाई चरागाह है। इन चरागाहों में पशुचारे की पैदावार बढ़ाने के लिए अब नई तकनीकों का प्रयोग किया जाना जरूरी हो गया है। ऐसा ही नया प्रयोग भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा किया गया है। गुनिया घास ( वैज्ञानिक का नाम - पानीकम मैक्सिमम ) की एक नई वैरायटी रूप में यह घास पोषक तत्वों से भरपूर है। गुनिया घास कई देशों में पहले से ही उगाया जा रहा है। भारत में भी इसका प्रयोग बहुतायत में किया जाता है। सेंट्रल वेराइटल रिलीज कमेटी ने हाल ही में गुनिया घास की नई किस्म बुंदेल गुनिया-1 ( जएचजीजी. 96-5 ) के व्यावसायिक उपयोग की अनुमति दी है। इसे भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित किया गया है। गुनिया घास की यह किस्म विशेष कर सूखे क्षेत्रों के लिए तैयार की गई है। यह दूसरी गुनिया किस्मों से हर मामले में बेहतर है। देसरी किस्मो के मुकाबले इसकी उत्पादकता 7.6 फीसदी अधिक होती है। इसके अलावा इसमें क्रूड प्रोटीन की मात्रा भी दूसरी किस्मों के मुकाबले चार गुना ज्यादा होती है। गुनिया घास में प्रोटीन की मात्रा इसकी कटाई के समय पर निर्भर करती है। नई किस्म की गुनिया के पत्तों को यदि शुरूआती समय में काटा जाये तो उसमें और भी ज्यादा प्रोटीन होती है। आगे 45 दिनों के बाद इसमें प्रोटीन की मात्रा घट जाती है। सामान्य गुनिया घास की तरह इसे भी सर्दियों के दो महीने छोड़कर साल भर काटा जा सकता है। सूखे क्षेत्रों में बुंदेल गुनिया की उत्पादकता 40 से 75 टन प्रति हैक्टेयर रहती है जबकि सिंचित क्षेत्रो में इससे 160 टन प्रति हैक्टेयर तक पैदावार ली जा सकती है। सामान्य किस्मों से 150 टन प्रति हैक्टेयर तक पैदावार होती है। इसकी पहली कटाई लगाने के 75 दिनों के बाद की जा सकती है। उसके बाद 45 दिनों के अंतराल के बाद लगातार कटाई की जा सकती है। बुंदेली किस्म को विशेषकर मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, हिमांचल प्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु के कम वर्षा वाले क्षेत्रों में उगाया जा सकता है। उत्तर भारत में नर्सरी में इसकी बुवाई करने का सही समय मार्च महीने का होता है। बाद में जुलाई में मानसून आने पर इसे खेतों में रोप दिया जाता है। इसके अलावा दक्षिण भारत में साल भर इसकी बुवाई की जा सकती है। देश भर में लगातार बढ़ती दूध और मीट की मांग को देखते हुए इस घास की बाजार कीमत में काफी बढ़ोत्तरी हो गई है।
साभार दैनिक भास्कर
1 comment:
अब शायद कम खर्च में पशुओं को पौष्टिक आहार मिल जाए और दूध की उपलब्धता बढे .. तभी नकली दूध पर रोक लग सकेगी !!
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