और कितना असमंजस, आधी आबादी के सवालों पर

- मदर्स डे -
मुझे औरतों का जोर से बोलना पसंद नहीं है, तुम लड़की हो शाम को अकेले मत जाओ
, मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा, मैं तुम्हारा भाई हूँ, तुम्हारा भला बुरा मुझसे अच्छा और कौन समझेगा, इन लड़कियों का काम छोटे छोटे कपडे पहने बिना चलता नहीं है क्या, पूरे कपडे पहनने मैं शर्म आती है क्या, ये औरतें चुप नहीं रह सकती हैं क्या, औरतों को अपनी हद में ही रहना चहिये, शर्म औरत का गहना होता है, औरत हैं तो औरत जैसा ही व्यवहार करना चाहिए, मैं पैसा कमा के लाता तो हूँ तुम सिर्फ घर का काम देखो, और ये भी बताइए कि क्या रसोई में काम करना कोई मर्दों का काम होता है, आदि आदि.......

ये वे जुमले हैं जो अक्सर महिलाओं के सन्दर्भ में या उन्हें संबोधित करके कहे जाते हैं. ये समाज की स्वाभाविक सोच की प्रतिक्रिया है. क्योंकि ये सब सदियों से हमारे खून में शामिल है और कई पीढ़ियों से यह सब घोंट-घोंट कर पिलाया भी जा रहा है. दरअसल महिलाओं के प्रति हमारा दृष्टिकोण कुछ मनावैज्ञानिक भ्रम का शिकार है, पुरुषत्त्व की श्रेष्ठता का भान होना भी उसी का एक रूप है. लेकिन अगर पिछली तीन चार पीढ़ियों का लेखा-जोखा देखें तो इस सोच में बदलाव भी आये है. हर नयी पीढ़ी अपनी पुरानी पीढ़ी से बेहतर सोच वाली साबित हुई है. उन्होंने अपने आचार व्यवहार में महिलाओं के प्रति एक अलग सोच को सामने रखा, लेकिन सत्य यह भी है कि उन्हें अपने बड़ों से इस बदलाव के लिए टकराव भी मोल लेना पड़ा.

आज बदलाव का युग है, वो भी इस तेजी से कि कई बार लगता है कि एक जीवन में ही तीन चार पीढ़ियों के बदलाव हो रहे है. जाहिर है तेजी से बदलती दुनिया में हमारी सोच और सरोकार भी तेजी से बदल रहे हैं. अब समय आ गया है कि हर किसी को अपनी सोच ओर अपनी विचार को भली भांति परख लेना होगा. ये बात महिलाओं और पुरुषों दोनों पर लागू होती है. हमें अपनी सोच का दायरा बढ़ाते हुए महिलाओं के असल मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना होगा, जो हमारे अवचेतन में भी शामिल कर दिए गए है. ये सभी मुद्दे सांस्कृतिक और सामाजिक हैं, जिनपर नए सिरे से मंथन किया जाना चाहिए. चाहे वे तथाकथित मर्दानगी और पुरुषत्त्व से जुड़े हुए मुद्दे ही क्यों न हों. आज महिलाओं के मुद्दों और सरोकारों पर कहीं अधिक संवेदनशील होने और परिपक्वता दिखाने की आवश्यकता है. बालिका के जन्म से लेकर उसके युवा होने और युवा से बुजुर्ग होने तक उन्हें हर वाजिब हक की पैरवी हमें करना होगी. ये बहुत आसान है, बस हमें अपनी सोच में बदलाव लाना होगा.

असल में भले ही दुनिया कितनी भी तेजी से बदली हो हमारा महिलाओं के प्रति मानदंडों में खास बदलाव नहीं आया है. जबकि आज अत्यधिक संवेदनशीलता और खुला दिमाग चाहिए. विकास की गति हमें चेता रही है कि अब ये लंबे समय तक चलने वाला नहीं है, क्योंकि अब महिलायें और आज की पूरी पीढ़ी जिस तेजी से विकास परिद्रश्य में अपनी भूमिका निभाने को तैयार हो रही है, उनके लिए रास्ता न देना पूरी मानवता का भी अपमान है. वैसे ये चेतावनी भी है उन लोगों के लिए जो आज भी ऋणात्मक सोच के साथ जी रहे है.

संजीव परसाई, राज्य प्रबंधक संचार और ज्ञान

तेजस्विनी कार्यक्रम

तेजस्विनी संवाद के आलेख जनसत्ता में भी प्रकाशित


तेजस्विनी संवाद पर प्रकाशित आलेख को जनसत्ता जैसे प्रतिष्ठित अखबार ने विगत २८ अप्रैल को प्रकाशित किया है, और इसी आलेख को प्रतिष्ठित गैर सरकारी पोर्टल इंडिया वाटर पोर्टल ने भी प्रकाशित किया है , जनसत्ता में प्रकाशित आलेख की प्रति।

इसी प्रकार नीचे दिए लिंक से इंडिया वाटर पोर्टल पर प्रकाशित आलेख भी पढ़ा जा सकता है।


धन्यवाद

पानी - असमान वितरण व कुप्रबंधन से उपजा हाहाकार

पानी के लिये हाहाकार मचने और मचाने के दिन फिर से आ गये। अखबारों से लेकर नेट तक और भीड़ से लेकर एकाकी तक सभी जलसंकट के नाम से स्यापा करने में जुट गये हैं। इसके लिये रोज नयी नयी कहानियां और घटनाएं सामने आ रहीं हैं। निरंतर कई प्रसंग सुनने देखने को मिल रहे हैं लगता है कि अलग अलग तरीकों से इसकी विकरालता दर्शाना ही सभी का उददेश्य होकर रह गया है।
ऐसा नहीं है कि वे गलत हैं या उनकी सोच में कोई खोट है। दरअसल पहले तो यह तय करना होगा कि यह क्या वाकई समस्या है, और अगर है तो कितनी विकराल है। पिछले दिनों एक जलयोदधा अनुपम मिश्र जी से मुलाकात हुई थी। बात ही बात में वे कह गये कि पानी की समस्या लोगों की निष्ठुरता और असामाजिक मानसिकता की वजह से होती है। आज भारत के शहरों में से अधिकाँश शहर पानी की भीषण समस्या से जूझ रहे हैं। समस्या की विकरालता का अंदाजा इससे लग सकता है कि लोगों की पीने के पानी तक के लिये भी जददोजहद करना पड़ रही है।
असल में पानी की बर्बादी, बढ़ती जनसंख्या और पानी के स्त्रोतों के रखरखाव का अभाव इस समस्या को और अधिक विकराल स्वरूप देता है। देश के अधिकाँश शहर जल को लेकर दो भागों में बँट गये हैं एक तो शहर का वह भाग जहां पानी की आपूर्ति पर्याप्त से अधिक है, इस भाग के लोग पानी की चिंता में दुबले नहीं होते ये प्रायः शहरों का श्रेष्ठि वर्ग होता है। दूसरा भाग वह है जहां पानी तो पर्याप्त होता है लेकिन उचित प्रबंधन और पानी के प्रति दया के अभाव में किल्लत झेलता है। इस बात के समर्थन में उदाहरण हमारे आसपास ही मौजूद हैं। सोच का विषय यह है कि ये दोनों वर्ग आधा किमी के दायरे में ही देखने को मिल जायेंगे। इस प्रकार देखा जाये तो पानी की किल्लत पानी की कमी की वजह से नहीं है बल्कि यह समस्या तो कुप्रबंधन और जिम्मेदारी के अभाव की वजह से हो रही है।
दो नजारे ऐसे हैं जो कि एक ही नजदीकी इलाके में देखने को मिल जाते हैं एक तो कालोनियों का जिसमें सुबह शाम गाड़ियां और फर्श धोते ओर गार्डन में पानी देने के बहाने पानी जाया करते पढ़े-लिखे लोग, दूसरे नजारे में (उसी स्थान से चंद कदम दूर ही) एक सरकारी नल पर बाल्टी, कनस्तर और प्लास्टिक के डिब्बे लिये हुये लोग जो पानी पाने के लिये किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। दरअसल ये गैरस्वाभाविक परिस्थितियाँ ही पानी के प्रबंधन और वितरण व्यवस्था की पोलें खोलती है।
निरंतर बढ़ती जनसंख्या के चलते जल स्त्रोतों पर अनुचित दबाव बन रहा है। इस दबाव के चलते स्त्रोतों का रखरखाव नहीं हो पा रहा है। आज भी देश में वर्षा का औसत 1177 मिमी के आसपास बना हुआ है। जो कि देश की आवश्यकता के लिहाज से पर्याप्त है। लेकिन फिर भी पानी के लिये हाहाकार समझ से परे है। दरअसल हमने प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग के लिये न तो कोई रणनीति बनायी है न ही उनके समुचित दोहन के लिये कोई प्रक्रिया, सब मनमर्जी से चल रहा है।
हर साल गर्मियों के आते ही हालात बद से बदतर होने की खबरें सुनने सुनाने की प्रथा हो चली है, जो मानसून की दस्तक के साथ ही समाप्त भी हो जाती हैं। हालात बेहतर बने रहें इसके लिये प्राकृतिक संसाधनों के प्रति संवेदनशीलता की आवश्यकता है, आखिर सवाल आने वाली पीढ़ी का भी है। यह तय है कि जल संरक्षण और प्रबंधन व्यवहार में लाने की चीज है जो सारी समस्याओं से निजात दिलाने के लिये पर्याप्त है।

संजीव परसाई

महिलायें, पानी और पानी का अधिकार

"पानी के इंतजाम में लगने वाला कठोर श्रम, उत्पादकता के लिहाज से महत्वपूर्ण समय, महिलाओं की शिक्षा और स्वास्थ्यगत मुददे भी इस समस्या से सीधे तौर पर ही जुड़े हुये हैं। इसके अलावा महिलाओं पर सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से पड़ने वाले प्रभाव में महिलाओं के आत्मसम्मान से जुड़े मुददे भी शामिल हैं....."

पानी की समस्या जानकारी के लिहाज से कोई नयी नहीं है। हर साल सामान्यतया गर्मियों के मौसम में काफी मंथन किया जाता है जो सामान्यतः मानसून के भारत में प्रवेश के साथ खत्म हो जाता है। पानी चूंकि मूल आवश्यकता में शुमार है अतः यह चर्चा और समस्या आने वाले कई सालों तक चलने वाली है।
अगर हम परिवार या समाज को एक इकाई मानें तो सबसे अधिक पानी की कमी होने की मार कहें या पानी की कमी होने पर सबसे अधिक प्रभावित कौन होता है? यह प्रश्न जरूर है लेकिन यह एक जानकारी और सीख भी है, खासकर उनके लिये जो इस समस्या का सतही विष्लेषण कर इतिश्री मान लेते हैं। पानी की कमी से सबसे अधिक प्रभावित होने वाला वर्ग है समाज की महिलायें।
गांव हों या शहर हों पानी की समस्या हुई नहीं कि परिवार की महिलाओं पर एक अतिरिक्त भार आ जाता है, पानी के इंतजाम का। शहरों में यह समस्या प्रायः अपेक्षाकृत सुधरे स्वरूप में होती है क्योंकि या तो पानी के स्त्रोत नजदीक होते हैं या फिर सरकारी इंतजाम भी इस समस्या के निदान में मदद करते हैं। लेकिन गांवों में इस समस्या को अपने विकट स्वरूप में देखा जा सकता है । कई गांवों में यह समस्या वर्ष भर चलने वाली होती है, हालांकि शासकीय योजनाओं के तहत लगे हैण्डपंपों और कुंओं के बनने से कुछ फायदा अवश्य हुआ है। लेकिन उन स्त्रोतों का ज्यों ज्यों भूजल स्तर गिरता जाता है महिलाओं पर इसका भार बढ़ता जाता है। चूंकि हमारे सामाजिक ढ़ांचे में महिलाओं को ही यह जिम्मेदारी दी गयी है , यह तय कर दिया गया है कि घरेलू उपयोग के लिये पानी का इंतजाम महिलायें ही करेंगी। चाहे यह कार्य कितना भी दुष्कर क्यों न हो। देश के ग्रामों में सिर पर घड़े घरे हुये पानी के इंतजाम के लिये महिलाओं के जाने वाले दृश्य आम हैं। निरंतर गिरता भूजल स्तर पानी की कमी और उससे जुड़ी समस्याओं को आने वाले समय में और भी भयावह बना देगा।
नारी वादी आंदेालनों और सरकारी प्रयासों में महिलाओं के लिये सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक आजादी की पैरवी की जाती है। जो संपूर्ण सशक्तिकरण की अवधारणा के लिये सर्वथा उचित भी है, लेकिन पानी के लिये संघर्ष में महिलाओं भूमिका को अब तक समझा नहीं गया है। प्रखर नारी आंदोलनों ने अब तक वैवाहिक जीवन में स्त्री के अधिकार, महिला शिक्षा, राजनीति में भूमिका, आर्थिक और स्वतंत्रता जैसे विभिन्न बुनियादी पहलुओं पर जनमानस को बदलने का काम किया है। आने वाले समय में पानी का मुददा भी एक ऐसा मुददा होगा जो महिला सशक्तिकरण आंदोलन को सीधे तौर पर प्रभावित करेगा। क्योंकि ग्रामीण परिवेश में घरेलू उपयोग और पीने के पानी के इंतजाम की जिम्मेदारी सिर्फ और सिर्फ महिलाओं और बच्चियों पर ही है। यह कारक बच्चियों के स्कूल छोड़ने के लिये भी कुछ हद तक जिम्मेदार है।
असल में पानी के इंतजाम में महिलाओं की भूमिका अकेला मुददा नहीं है। पानी के इंतजाम में लगने वाला कठोर श्रम, उत्पादकता के लिहाज से महत्वपूर्ण समय, महिलाओं की शिक्षा और स्वास्थ्यगत मुददे भी इस समस्या से सीधे तौर पर ही जुड़े हुये हैं। इसके अलावा महिलाओं पर सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से पड़ने वाले प्रभाव में महिलाओं के आत्मसम्मान से जुड़े मुददे भी शामिल हैं। महिलाओं के लिये वातावरण निर्माण के पैराकोर पानी को अगले पड़ाव का विषय मानकर रणनीति निर्माण करते हैं, लेकिन आज इस मुददे को प्राथमिक मुददे के रूप में स्थापित करना होगा। अब समय आ गया है कि भोजन, शिक्षा, समानता, सूचना आदि के अधिकार को अमली जामा पहनाने के बाद पानी के अधिकार पर भी पूरी संजीदगी के साथ विचार किया जाये। क्योंकि इसके मूल में प्राकृतिक संसाधनों के असमान वितरण, कुप्रबंधन, दुरूपयोग और संवेदनशीलता हैं।

संजीव परसाई
संचार ज्ञान प्रबंधक
तेजस्विनी कार्यक्रम भोपाल

देश में बिगड़ता लैंगिक अनुपात

भारत की जनगणना और कनाडा के मेडिकल शोध ने भारत में व्याप्त लैंगिक असामनता की समस्या को फिर ज्वलंत कर दिया है। आज भी देश में एक हजार किशोरों पर किशोरियों की संख्या 940 है। आगामी बीस वर्षो में लगभग दस से बीस प्रतिशत कम होगी। हर नौजवान अपने लिए एक उपयुक्त वधु की तलाश में नजर आएगा। उस देश में जहाँ वर्तमान में देश की राष्ट्राध्यक्ष, सत्ताधारी दल की मुखिया, सदन की अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष सब महिलाएं हंै, वहाँ ऐसी स्तिथियाँ शर्मनाक एवं चिंतनीय हैं। अपने देश में हर घर में शक्ति देवी दुर्गा, विद्या दायिनी सरस्वती की पूजा- अर्चना होती, हर आमो-खास धन लक्ष्मी की कमाना रखता है, ऐसे धर्मभीरु समाज में कन्या भ्रूणहत्या महा पाप है। देश का बहुसंख्य समाज माता के नाम पर साल में दो बार उपवास रखता है। देवताओं से ज्यादा मंदिर देवियों के है फिर भी ये सब हो रहा है। यह लैंगिक असंतुलन समाज के लिए बड़े व्यापक स्वरूप में नुकसान पहुँचाने वाला है। यद्यपि अभी भी हमारे देश में अंतरजातीय विवाहों का स्वागत नहीं किया जाता है, अनेक जातियों और उपजातियों में बटा देश अभी भी स्वजातीय विवाह के पक्ष में है, जिसके चलते कई समाज इस भ्रांति में है कि उनकी समाज में लैंगिक असंतुलन नहीं है, व सब ठीक है। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है यह असंतुलन हर जाति, उपजाति के लिए घातक सिद्ध होगा वर्तमान आंकड़े इस बात की पुष्टि कर रहे हैं कि इस असंतुलन से कोई भी जाति या उपजति नहीं बचेगी सब पर इसका असर पड़ेगा। इस विषय में बने वर्तमान भारतीय कानून भी बहुत प्रभावकारी नहीं दिखे हैं, ऐसा लगता है कि अन्य कानूनों की भांति इसकी धार भी कुंद हो गयी है। इसके साथ ही जिस तरह से यह अपराध घटित होता है वो पूरी प्रक्रिया भी ऐसी है कि अपराधियों की पकड़ आसान नहीं है और पकड़ भी आ जाये तो कानून की कमजोरियों का लाभ ले मुक्त हो जाते हैं और फिर से समाज को गन्दा करने लगते हैं। आवश्यकता है कि सबसे पहले देश के वर्तमान कन्या भ्रूणहत्या कानून को और सशक्त किया जाये और इस विषय में कमजोर पड़ रही सामजिक सोच को भी बदलने और मजबूत करने की जरूरत है। क्योंकि देश की वर्तमान अभिभावक पीढ़ी शिशु के लिंग से लेकर उसका भविष्य तक सब कुछ अपने हिसाब से निर्धारित करना चाहती है, अपितु यह माता-पिता के रूप में उनका उत्तरदायित्व एवं अधिकार भी है, किन्तु इसमें सीमा से आगे जाने के कारण बच्चों का बचपन और भविष्य दोनों का ही हरण उनके अभिभावकों द्वारा ही किया जा रहा है। लैंगिक असंतुलन का नैतिक जिम्मा हम और आप सब का है क्योंकि इसके दुष्प्रभाव पूरे समाज पर होंगे ना कि सिर्फ किसी व्यक्ति विशेष मात्र पर। यह बात और है कि हम इस जिम्मेदारी को मानें या ना मानें। हम सब उस भारतीय समाज का ही भाग हैं जहाँ कन्या के साथ भ्रूण से लेकर भूमि तक हर जगह भेदभाव हो रहा है। खानपान, शिक्षा, उत्सव,आयोजन, पहनवा और स्वस्थ सब जगह अंतर स्पष्ट है। लड़के के जन्म पर जश्न और लड़की के जन्म पर शोक अभी भी होता है जो निहायत गैर जिम्मेदाराना और शर्मनाक है। अपने देश में साक्षरता की दर बढ़ती जा रही है किन्तु नैतिकता और नैतिक मूल्यों की दर घटी जा रही है। इस साक्षर और शिक्षित भारत में कन्या भ्रूणहत्या और भेदभाव इस पतन की जिन्दा मिसाल है। यदि हर माता -पिता लड़की और लड़के का भेद अपने मन से हटा दें तो आंकड़ों का यह भेद स्वत: ही मिट जायेगा। आज की स्थितियों से यह स्पष्ट है कि इस तरह कि समस्या कानूनी कम और सामाजिक ज्यादा है। इस सामाजिक मानसिकता को बदलने का जिम्मा देश की वर्तमान युवा पीढ़ी को ही उठाना होगा, जो कथित रूप से साक्षर तो है पर इन सब बातों से जिसके शिक्षित होने पर प्रश्न चिन्ह लगा है। जिस दिन हम और हमारा समाज यह तय कर ले उसी दिन यह बीमारी जड़ से मिट जायेगी व फिर यह किसी सरकारी नियम कानून की मोहताज भी नहीं रहेगी। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि हम प्यास लगने पर ही कुआँ खोदने का स्थान ढूंढने निकलते हैं। नदियां सूखाने लगी हैं तब पानी बचाने की बात हो रही है। गले -गले तक भ्रष्टाचार में डूब गए अब उबरने के प्रयास हो रहें हैं। लैंगिक असंतुलन में अभी बात ज्यादा बिगड़ी नहीं है। समय रहते हम जाग जाये तो आने वाले दस-बीस वषरें में युवतियों की संख्या, युवकों की संख्या के बराबर लाना मुश्किल नहीं, बशर्ते कोशिशें आज से और इमानदारी से शुरू कर दी जाये सिर्फ कन्या भ्रूण बचने के वर्ष में एक दिवस मनाने के बजाय रोजमर्रा की दिनचर्या, चर्चा और मानसिकता में इसे शामिल कर लिए जाये।
पंकज चतुर्वेदी
(लेखक एनडी सेंटर फार सोशल डेवलपमेंट एंड रिसर्च के अध्यक्ष हैं) दैनिक जागरण से साभार

महिला सशक्तिकरण के लिए राष्ट्रीय नीति

भारत सरकार ने देश में महिलाओं की स्थिति सुधारने का लक्ष्य हासिल करने के लिए वर्ष 2001 में महिला सशक्तिकरण हेतु राष्ट्रिय नीति जारी की। भारतीय संविधान की प्रस्तावना, मूल अधिकार, मूल कर्तव्य और राज्य के नीति-निदेशक तत्वों में लिंग समानता का सिद्धांत अंतर्निहित है। संविधान में न केवल महिलाओं को बराबरी की दर्जा दिया गया है, बल्कि इसमें राज्यों को इस बात के भी अधिकार दिये गये है कि वे महिला हितों के लिए आवश्यक कदम भी उठा सकते हैं।
एक लोकतान्त्रिक नीति की रूपरेखा के अंतर्गत हमारे कानून, विकास नीतियां, योजनाएं और कार्यक्रम विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के विकास को लक्षित करती है। 1977-78 की पांचवी पंचवर्षीय योजना से महिलाओं से जुडे़ उनके कल्याण से लेकर विकास तक के मुद्दे हल करने के दृष्टिकोण में एक उल्लेखनीय परिवर्तन आया है।
हालिया सालों में महिलाओं की स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए महिला सशक्तिकरण को केन्द्रीय मुद्दे के रूप में जगह दी गयी है। महिलाओं के अधिकारों की रक्षा और कानूनी हक प्रदान करने के लिए 1990 में संसद में पारित एक कानून के जरिए ‘‘राष्ट्रीय महिला आयोग‘‘ का गठन किया। संविधान के 73वें व 74वें संशोधन के जरिए महिलाओं के लिए पंचायतों व नगर निगमों में स्थान आरक्षित किये गये। इससे स्थानीय स्तर पर नीति निर्माण व निर्णय निर्धारण में महिलाओं की भागीदारी की मज़बूत नीवं तैयार हुई।
भारत ने महिलाओं के बराबरी के अधिकार को सुरक्षित करने के प्रति वचनबद्ध अनेक अंतर्राष्ट्रीय संधियों व मानवाधिकार समझौतों का अनुमोदन भी किया है। इनमें 1993 की महिलाओं के प्रति सभी तरह के भेदभाव को समाप्त करने की संधि, 1985 की नैरोंबी प्रगतिशील रणनीति संधि, 1995 की बीजिंग घोषणा व प्लेटफार्म फॉर एक्शन संधि, 1975 की मैक्सिको कार्ययोजना और संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा स्वीकृत 21वीं शताब्दी के लिए लिंग समानता और विकास व शांति पर घोषणा पत्र शामिल है।
महिला सशक्तिकरण की राष्ट्रीय नीति में इस मुद्दे से जुड़ी अन्य नीतियों व नोवीं पंचवर्षिय योजना में किये गये वायदों का भी उल्लेख है।

महिला सशक्तिकरण नीति के उद्देश्य -
- आर्थिक व सामाजिक नीतियों के जरिए महिलाओं के विकास के लिए वातावरण तैयार करना।
- राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और नागरिक , सभी क्षेत्रों में पुरूषों के बराबरी के आधार पर सभी मानवाधिकारों व मूल स्वतंत्रता का महिलाओं को लाभ पहुंचाना।
- राजनैतिक, आर्थिक , सामाजिक, सांस्कृतिक और नागरिक , सभी क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी व निर्णय निर्धारण में महिलाओं को बराबर अवसर प्रदान करना।
- सभी स्तरों पर स्वास्थ्य देखभाल, गुणात्मक शिक्षा, व्यावसायिक मार्गदर्शन, रोजगार, मेहनताना, पेशेगत स्वास्थ्य व सुरक्षा , सामाजिक सुरक्षा आदि में बराबर अवसर प्रदान करना।
- महिलाओं के खिलाफ होने वाले सभी तरह के भेदभाव को दूर करने के लिए कानूनी तंत्र को मज़बूत बनाना।
- पुरूषों व महिलाओं की सक्रिय भागीदारी के जरिए सामाजिक दृष्टिकोण व सामुदायिक प्रथा में बदलाव लाना।
- महिलाओं के खिलाफ होने वाली सभी तरह की हिंसा को रोकना।
- नागरिक संगठनों, खासतौर पर महिलाओं के संगठनों के साथ साझेदारी स्थापित करना व उसे मज़बूत बनाना।
महिला सशक्तिकरण - वैश्विक स्थिति
पिछले तीन दशकों में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समानता को बढ़ाने वाले कदमों या उपायों के जरिए महिलाओं के सशक्तिकरण की आवश्यकता और मूलभूत मानवाधिकारों तक महिलाओं की पहुंच, पोषण व स्वास्थ्य और शिक्षा में सुधार के बारे में जागरूकता बढ़ी है। महिलाओं के दूसरे दर्ज का नागरिक होने के बारे में जागरूकता बढ़ने के साथ-साथ जाति, वर्ग, आयु और धार्मिकता जैसे दूसरे कारकों के संबंध में समाजिक-सांस्कृतिक अनुकूलन के रूप में लिंग की धारणा ने भी जन्म लिया है। लिंग असल में महिलाओं का पर्यायवाची नहीं है और न ही पुरूषों के हितों की हानि दर्शाने वाला शून्य अंक वाला खेल है। इसके विपरित यह महिलाओं व पुरूषों दोंनो से और उनकी एक दूसरे के सापेक्ष स्थिति से संबंधित है । लिंग समानता मानव के सामाजिक विकास की ऐसी स्थिति को दर्शाती है जिसमें व्यक्तियों के अधिकारों जिम्मेदारियों और अवसरों को उनके महिला या पुरूष के रूप में जन्म लेने के तथ्य से तय नहीं किया जायेगा। दूसरे शब्दों में लिग समानता ऐसी स्थिति होगी जिसमें पुरूष और महिला दोनों ही अपनी पूरी क्षमता की अनुभूति करेंगे।
विश्व स्तर पर लिंग समानता स्थापित करने की महत्ता को ध्यान में रखकर संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के अंतर्गत 1984 में अलग फण्ड के रूप में संयुक्त राष्ट्र महिला विकास फण्ड की स्थापना की गयी। उस समय संयुक्त राष्ट्र महासभा ने इसे मुख्यधारा की गतिविधियों में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने का कार्य सौंपा। 1995 की महिलाओं पर हुई बीजिंग विश्व बैठक में घोषित प्लेटफार्म आॅफ एक्शन ने इस परिकल्पना को और विस्तार दिया। प्लेट फार्म आफ एक्शन में इसे लिंग मुख्यधारा कहा गया और सभी नीति निर्माण, अनुसंधान योजना निर्माण, समर्थन व सलाह , विकास क्रियान्वयन और संचालन तक लिंग परिदृश्य का उपयोग है।
लिंग समानता हासिल करने का संयुक्त राष्ट्र और दूसरी कई एजेसिंयों का कार्य एक दूसरे से नजदीकी रूप से जुड़े तीन क्षेत्रों की ओर अभिमुख है। महिलाओं की आर्थिक क्षमता को मजबूती प्रदान करना जिसमें नई तकनीकी और नए व्यापार एजेण्डा पर ध्यान केन्द्रित है , महिला नेतृत्व और राजनीतिक भागीदारी को प्रोत्साहन देना और महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा को समाप्त करना। इससे यह स्पष्ट है कि महिलाओं के लिए बराबरी का दर्जा हासिल करने के लिए अभी बहुत लम्बा फासला तय करना है और इस कार्य के लिए कई मंचों पर एकाग्र प्रयासों की आवश्यकता है।

(राजीव श्रीवास्तव)
अतिरिक्त जिला कार्यक्रम प्रबंधक
तेजस्विनी ग्रामीण महिला सशक्तिकरण कार्यक्रम
जिला छतरपुर (म.प्र.)
स्रोतः समसामयिकी महासागर, 2009

प्रमुख सचिव ग्रामीण विकास ने सराहा तेजस्विनी समूहों को



दिनांक 4-5 अगस्त 2010 को प्रमुख सचिव ग्रामीण विकास श्री आर. परसुराम ने अपने मंडला प्रवास के दौरान तेजस्विनी समूहों की प्रगति का अवलोकन किया। प्रमुख सचिव ने तेजस्विनी समूहों से मिलकर उनकी प्रगति औरभविष्य की योजनाओं के बारे में जाना और सुखद भविष्य की कामना करते हुए कार्यक्रम के तहत किये जाने वालेप्रयासों की सराहना भी की। इस भ्रमण के दौरान महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के प्रमुखकार्यकारी अधिकारी श्री शिवशेखर शुक्ल, मध्य प्रदेश ग्रामीण आजीविका परियोजना के समन्वयक श्री बैलवाल, तथा जिला कलेक्टर ने भी स्वसहायता समूहों से चर्चा कर प्रगति का अवलोकन किया और समूहों के कार्यों की सराहना की।
चित्र - ग्राम घुघरी और सिंगपुर में समूहों से चर्चा करते अतिथिगण ।
जिला कार्यक्रम प्रबंधक मंडला


दिनांक २७ जुलाई को भोपाल से प्रकाशित दैनिक पीपुल्स समाचार के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख में तेजस्विनी कार्यक्रम के बारे में प्रकाशित हुआ है ।

एमटी आर के भ्रमण की झलकियाँ