देश में बिगड़ता लैंगिक अनुपात

भारत की जनगणना और कनाडा के मेडिकल शोध ने भारत में व्याप्त लैंगिक असामनता की समस्या को फिर ज्वलंत कर दिया है। आज भी देश में एक हजार किशोरों पर किशोरियों की संख्या 940 है। आगामी बीस वर्षो में लगभग दस से बीस प्रतिशत कम होगी। हर नौजवान अपने लिए एक उपयुक्त वधु की तलाश में नजर आएगा। उस देश में जहाँ वर्तमान में देश की राष्ट्राध्यक्ष, सत्ताधारी दल की मुखिया, सदन की अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष सब महिलाएं हंै, वहाँ ऐसी स्तिथियाँ शर्मनाक एवं चिंतनीय हैं। अपने देश में हर घर में शक्ति देवी दुर्गा, विद्या दायिनी सरस्वती की पूजा- अर्चना होती, हर आमो-खास धन लक्ष्मी की कमाना रखता है, ऐसे धर्मभीरु समाज में कन्या भ्रूणहत्या महा पाप है। देश का बहुसंख्य समाज माता के नाम पर साल में दो बार उपवास रखता है। देवताओं से ज्यादा मंदिर देवियों के है फिर भी ये सब हो रहा है। यह लैंगिक असंतुलन समाज के लिए बड़े व्यापक स्वरूप में नुकसान पहुँचाने वाला है। यद्यपि अभी भी हमारे देश में अंतरजातीय विवाहों का स्वागत नहीं किया जाता है, अनेक जातियों और उपजातियों में बटा देश अभी भी स्वजातीय विवाह के पक्ष में है, जिसके चलते कई समाज इस भ्रांति में है कि उनकी समाज में लैंगिक असंतुलन नहीं है, व सब ठीक है। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है यह असंतुलन हर जाति, उपजाति के लिए घातक सिद्ध होगा वर्तमान आंकड़े इस बात की पुष्टि कर रहे हैं कि इस असंतुलन से कोई भी जाति या उपजति नहीं बचेगी सब पर इसका असर पड़ेगा। इस विषय में बने वर्तमान भारतीय कानून भी बहुत प्रभावकारी नहीं दिखे हैं, ऐसा लगता है कि अन्य कानूनों की भांति इसकी धार भी कुंद हो गयी है। इसके साथ ही जिस तरह से यह अपराध घटित होता है वो पूरी प्रक्रिया भी ऐसी है कि अपराधियों की पकड़ आसान नहीं है और पकड़ भी आ जाये तो कानून की कमजोरियों का लाभ ले मुक्त हो जाते हैं और फिर से समाज को गन्दा करने लगते हैं। आवश्यकता है कि सबसे पहले देश के वर्तमान कन्या भ्रूणहत्या कानून को और सशक्त किया जाये और इस विषय में कमजोर पड़ रही सामजिक सोच को भी बदलने और मजबूत करने की जरूरत है। क्योंकि देश की वर्तमान अभिभावक पीढ़ी शिशु के लिंग से लेकर उसका भविष्य तक सब कुछ अपने हिसाब से निर्धारित करना चाहती है, अपितु यह माता-पिता के रूप में उनका उत्तरदायित्व एवं अधिकार भी है, किन्तु इसमें सीमा से आगे जाने के कारण बच्चों का बचपन और भविष्य दोनों का ही हरण उनके अभिभावकों द्वारा ही किया जा रहा है। लैंगिक असंतुलन का नैतिक जिम्मा हम और आप सब का है क्योंकि इसके दुष्प्रभाव पूरे समाज पर होंगे ना कि सिर्फ किसी व्यक्ति विशेष मात्र पर। यह बात और है कि हम इस जिम्मेदारी को मानें या ना मानें। हम सब उस भारतीय समाज का ही भाग हैं जहाँ कन्या के साथ भ्रूण से लेकर भूमि तक हर जगह भेदभाव हो रहा है। खानपान, शिक्षा, उत्सव,आयोजन, पहनवा और स्वस्थ सब जगह अंतर स्पष्ट है। लड़के के जन्म पर जश्न और लड़की के जन्म पर शोक अभी भी होता है जो निहायत गैर जिम्मेदाराना और शर्मनाक है। अपने देश में साक्षरता की दर बढ़ती जा रही है किन्तु नैतिकता और नैतिक मूल्यों की दर घटी जा रही है। इस साक्षर और शिक्षित भारत में कन्या भ्रूणहत्या और भेदभाव इस पतन की जिन्दा मिसाल है। यदि हर माता -पिता लड़की और लड़के का भेद अपने मन से हटा दें तो आंकड़ों का यह भेद स्वत: ही मिट जायेगा। आज की स्थितियों से यह स्पष्ट है कि इस तरह कि समस्या कानूनी कम और सामाजिक ज्यादा है। इस सामाजिक मानसिकता को बदलने का जिम्मा देश की वर्तमान युवा पीढ़ी को ही उठाना होगा, जो कथित रूप से साक्षर तो है पर इन सब बातों से जिसके शिक्षित होने पर प्रश्न चिन्ह लगा है। जिस दिन हम और हमारा समाज यह तय कर ले उसी दिन यह बीमारी जड़ से मिट जायेगी व फिर यह किसी सरकारी नियम कानून की मोहताज भी नहीं रहेगी। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि हम प्यास लगने पर ही कुआँ खोदने का स्थान ढूंढने निकलते हैं। नदियां सूखाने लगी हैं तब पानी बचाने की बात हो रही है। गले -गले तक भ्रष्टाचार में डूब गए अब उबरने के प्रयास हो रहें हैं। लैंगिक असंतुलन में अभी बात ज्यादा बिगड़ी नहीं है। समय रहते हम जाग जाये तो आने वाले दस-बीस वषरें में युवतियों की संख्या, युवकों की संख्या के बराबर लाना मुश्किल नहीं, बशर्ते कोशिशें आज से और इमानदारी से शुरू कर दी जाये सिर्फ कन्या भ्रूण बचने के वर्ष में एक दिवस मनाने के बजाय रोजमर्रा की दिनचर्या, चर्चा और मानसिकता में इसे शामिल कर लिए जाये।
पंकज चतुर्वेदी
(लेखक एनडी सेंटर फार सोशल डेवलपमेंट एंड रिसर्च के अध्यक्ष हैं) दैनिक जागरण से साभार

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