सिर्फ़ दिवस मनाने से नहीं होगा महिला सशक्तिकरण

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस से मुझे पता नहीं क्यों विश्व हिंदी दिवस की भी याद आ गई। क्यों मनाते हैं ये दिवस? क्यों 'अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस' या 'विश्व अंग्रेज़ी दिवस' नहीं होते? क्या इस वजह से कि आज भी महिला और हिंदी बेचारी है? आज भी उनकी और ध्यान दिलाए जाने की ज़रूरत है? मैं दुनिया भर की सभी महिलाओं की प्रतिनिधि तो नहीं हूँ लेकिन मेरे आत्मसम्मान को ठेस पहुँचती है जब मुझ पर 'दुखिया' या 'बेचारी' या 'वंचित' या 'अबला' का ठप्पा लगाया जाता है।
इसमें शक नहीं है कि आज भी अनगिनत महिलाएँ जीवन की मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं। लेकिन दुखियारे पुरुष भी तो हैं. ग़रीबी और अशिक्षा सबसे बड़े अभिशाप हैं और वे लिंगभेद नहीं करते. साल में एक बार दिन मनाए जाने से बेहतर होगा कि साल के 365 दिन समाज के उन उपेक्षित वर्गों को समर्पित किए जाएँ जिनकी ओर न किसी सरकार का ध्यान जाता है और न ही व्यवस्था का।
उपलब्धि क्या है?
आख़िर, अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की उपलब्धि क्या होती है? जगह-जगह समारोह, भाषणबाज़ी, बड़े-बड़े संकल्प और वायदे। और फिर स्थिति जस की तस। हाँ, यदि महिलाओं की स्थिति सुधारने का बीड़ा उठाया ही है तो उसकी शुरुआत कन्या भ्रूण से की जानी चाहिए। पहले तो उसे जन्म लेने का, जीने का, साँस लेने का अधिकार हो। फिर उसे कुपोषण से बचाया जाए. भारत में 6-14 वर्ष आयुवर्ग की लड़कियों पर किए गए एक अध्ययन के अनुसार कोलकाता में उनमें से 95 प्रतिशत, हैदराबाद में 67 प्रतिशत, दिल्ली में 73 प्रतिशत और चेन्नई में 18 प्रतिशत अनीमिया यानी ख़ून की कमी का शिकार हैं.
इसके अलावा उसकी शिक्षा का पूरा इंतज़ाम हो। एक पुरानी कहावत है कि एक पुरुष को शिक्षित बनाने का अर्थ है एक व्यक्ति को शिक्षित बनाना। जबकि एक महिला शिक्षित होती है तो पूरा परिवार शिक्षित होता है. लड़कियों की शिक्षा पर बहुत ज़्यादा ध्यान न दिए जाने के बावजूद आँकड़े बताते हैं कि भारत में महिला डॉक्टरों, सर्जनों, वैज्ञानिकों और प्रोफ़ेसरों की तादाद अमरीका से ज़्यादा है। सिर्फ़ दफ़्तर में काम करने वाली ही कामकाजी महिलाएँ नहीं होती हैं, ज़रा सोच कर देखिए थोड़ा सा सहारा या सहायता महिला को किन ऊँचाइयों तक ले जा सकती है।
लेकिन यह सहारा अंतरराष्ट्रीय दिवस मनाने से नहीं मिलेगा। यह मिलेगा अपने आसपास के परिवेश से. अपने घर-परिवार से।
ज़िम्मेदारी परिवार की
जिस दिन माता-पिता बेटी को बोझ समझना बंद करके बेटे के बराबर का हक़ देने लगेंगे, स्थितियाँ बदल जाएँगी। भारत की पहली महिला पुलिस अधिकारी और जुझारू व्यक्तित्व की मालिक किरण बेदी ने बीबीसी हिंदी डॉट कॉम पर समाज की कुछ वंचित महिलाओं के बारे में अपने एक लेख में ऐसी ही एक सलाह दी थी।
उन्होंने कहा था, "मैने उन तमाम स्त्रियों को समझाया कि जो चीज़ें उन्हें इतनी कोशिशों के बाद मिली हैं, मुझे वे सब मेरे माता-पिता ने जन्म से ही दिया था... इसलिए बेटियाँ वही बनती हैं जो उनके माता-पिता उन्हें बनाना चाहते हैं, और अगर उन महिलाओं के माता-पिता चाहते तो उन्हें भी ये सब मिल सकता था".
आज महिला मुक़ाबला पुरुष से नहीं कर ही है। वह समानता चाहती है महिला से ही। शहरी महिला और ग्रामीण महिला की खाई बहुत व्यापक है.
सुविधाएँ शहरो में पढ़ी-लिखी महिलाओं तक पहुँच रही हैं लेकिन गाँव की अनपढ़ महिला आज चाहे सरपंच की कुरसी पर बिठा दी जाए, वह आत्मनिर्भर नहीं है। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस तभी सार्थक हो सकता है जब महिलाओं को एक खांचे में न रख कर उन महिलाओं की तलाश की जाए जिन्हें रास्ता दिखाने वाला कोई नहीं है और फिर उन पर ही ध्यान केंद्रित किया जाए।
लेकिन यह काम करेगा कौन? हम और आप जैसे लोग ही न...तो इंतज़ार किस बात का है?

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