(ग्राम पंचायतों में महिला नेतृत्व पर उठने वाले सवाल अब पुराने होने लगे हैं , नए ज़माने की प्रतिनिधि अपने अधिकारों को पहचान उनका ग्राम विकास में बखूबी उपयोग कर रही हैं। महिला नेतृत्व को नए सिरे से परिभाषित करता मनोज कुमार का आलेख )
घर की चहारदीवारी और घूंघट में कभी अपना जीवन होम करने वाली ग्रामीण औरतें अब नये जमाने के साथ कदमताल कर रही हैं। वे नये तेवर के साथ मध्यप्रदेश के अलग अलग हिस्सों में यह जता दिया है कि वे एक बेहतर लीडर हैं जो न केवल घर सम्हाल सकती हैं बल्कि अवसर मिलने पर वे गांव की तस्वीर बदलने का माद्दा भी रखती हैं। मध्यप्रदेश के लिये यह नये किस्म का अनुभव है जब किसी ग्राम पंचायत की सरपंच अपने भ्रष्टाचारी सचिव के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है तो कहीं गांधीगिरी के साथ ऐसे नाकाबिल सचिव के खिलाफ मैदानमें उतर आयी हैं। यह वही मध्यप्रदेश है जहां भ्रष्टाचार से लड़ने में नाकाम सरपंच अपने दायित्वों से पलायन कर जाती थीं लेकिन आज वे सक्सेस लीडर के रूप में अपनी पहचान बना चुकी हैं।
पन्द्रह बरस से शायद कुछ अधिक ही हुआ होगा जब मध्यप्रदेश में पंचायतीराज व्यवस्था लागू की गई थी। महात्मा गांधी का सपना था कि सत्ता में ग्रामीणों की सक्रिय भागीदारी हो और इसके लिये वे पंचायतीराज व्यवस्था को लागू करने पर जोर दिया करते थे। उनकी मंशा थी कि इस व्यवस्था में स्त्रियों को बराबर का भागीदार बनाया जाए। महात्मा गांधी की सोच और सपने को सच करने की दृष्टि से मध्यप्रदेश में पंचायती राज व्यवस्था लागू की
गई। अपने आरंभिक दौर में पंचायतीराज व्यवस्था के जो परिणाम मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल सका। खासतौर पर महिलाओं की सक्रियता नहीं के बराबर रही।
जहां महिलायें सक्रिय भी हुर्इं तो वहां उनकी छाया बनकर उनके पति या परिवारवाले जिम्मेदारी सम्हाले रहे। हर बात पर उनसे पूछ लें, का जवाब मिलता था। कई पंचायतों में प्रभावशाली लोगों के कारण महिलाओं को अपना पद
छोड़ना पड़ा था। भ्रष्टाचार का दानव और इस दानव के रूप में अपने पंजे में सीधी-सादी महिला सरपंचों को लपेटे में लिया जाने लगा था।
आहिस्ता आहिस्ता पंचायती राज व्यवस्था में बदलाव दिखने लगा। महिलाओं में सक्रियता आने लगी। कल तक छाया बने पति और परिवार वाले किनारे होने लगे और निर्वाचित महिला सरपंच और पंच अपनी सोच के अनुरूप फैसला लेने लगे। इसका प्रतिशत भी बहुत कम था लेकिन बदलाव का एक कदम भी अर्थवान हुआ करता है। आज हालत यदि पूरी तरह नहीं बदले हैं तो भी बदलाव की बयार चल पड़ी है। हाल ही में हुए पंचायतों के चुनाव में ऐसे कई दृश्य बदलते हुए देखने को मिले।
राज्य के कई ग्राम पंचायतों में पूरी की पूरी सत्ता महिलाओं के हाथों में आ गयी। कई पंचायतों में चुनावी प्रक्रिया को सरल बनाकर निर्विरोध निर्वाचन की प्रक्रिया अपनायी गयी और निर्विरोध महिलाओं की पंचायतें बन गयीं। इस समय मिले आंकड़ों को परखें तो दर्जन से भी ज्यादा पंचायतों में निर्विरोध चुनाव हुए हैं जहां सौफीसदी महिला पंच और सरपंचों के हाथों में सत्ता की चाबी है।
निर्वाचन प्रक्रिया पूरी हो जाने के बाद महिला सरपंचों का इम्तहान बाकि था। पहले से जमे पंचायत सचिव से काम लेना, पंचायत को प्राप्त बजट और विकास कार्य की रूपरेखा बनाना। अनेक पंचायतों में महिला सरपंचों को सचिव ने सहयोग किया लेकिन कुछेक पंचायतों में वे रोड़ा बन गये। घपले खुल जाने के डर और आगे की काली कमाई बंद हो जाने की चिंता में वे महिला सरपंचों से दो-दो हाथ करने जैसी स्थिति में खड़े थे लेकिन उन्हें इस बात का अहसास नहीं था कि जमाना बदल गया है। अब वे जिससे पंगा लेने की कोशिश कर रहे हैं, वे उनसे सुलह नहीं करेंगी बल्कि बाहर का रास्ता दिखाने से नहीं चूकेंगी।
कुछ ऐसा ही उदाहरण आदिवासी बहुल जिला मंडला के ग्राम पंचायत चिरईडोंगरी में देखने को मिला जहां सचिव की मनमानी के खिलाफ सरपंच सुषमा उइके ने विशुद्ध गांधीवादी ढंग से विरोध जाहिर किया। ग्राम पंचायत चिरईडोंगरी जिले नैनपुर विकासखंड में आता है जो जिला मुख्यालय से लगभग पैंतीस किलोमीटर की दूरी पर बसा है। चिरईडोंगरी ग्राम पंचायत की सरपंच श्रीमती सुषमा उइके का कहना था कि उनका सपना अपने गांव के विकास का था किन्तु ग्राम पंचायत सचिव सुजीतसिंह अपनी मनमानी के आगे काम करने में लगातार बाधा पैदा कर रहा था। यही नहीं वह मनमाने ढंग से चैक से भुगतान कर रहा है। पूछे जाने पर वह कोई जवाब नहीं देता है और जब मैंने चेक पर हस्ताक्षर करना बंद कर दिया तो वह मुझे पद से हटाने की धमकी देता है। सरपंच सुषमा
उइके को सीईओ से भी शिकायत है कि कई बार प्रभारी सचिव सुजीत के खिलाफ शिकायत करने के बाद भी कार्यवाही नहीं की गई और उल्टे सीईओ मुझे पद छोड़ देने की बात कहते हैं। अपने अधिकारों का उपयोग न कर पाने से दुखी सुषमा उइके गांधीवादी तरीके से पंचायत सचिव का विरोध करते हुए मजदूरी करने में जुट गयी हैं। उनका मानना है कि एक दिन तो उनकी बात सुनी जाएगी। पंचायत सचिव की हठधर्मिता और सीईओ के रूखे व्यवहार से सरपंच दुखी जरूर है लेकिन निराश नहीं। वह कहती है कि एक दिन वह अपना अधिकार पाकर ही रहेंगी।
चिरईडोंगरी की सरपंच सुषमा उइके की तरह गांधीवादी तरीका अपनाने के बजाय देवास जिले के ग्राम बरखेड़ा की सरपंच उर्मिला चौधरी ने जता दिया कि लीडर कैसा होता है। गांव में अनेक वर्षाें से जमे बेजाकब्जे पर बुलडोजर चलवा दिया। उर्मिला के इस साहस की गांव वाले तारीफ करते नहीं थकते हैं। इसके पहले भी पंचायत प्रतिनिधि रहे किन्तु किसी ने इस ओर कार्यवाही करने में रूचि नहीं दिखायी। देवास जिले के जनपद पंचायत टोंकखुर्द के ग्राम पंचायत बरखेड़ा की सरपंच उर्मिला दसवीं कक्षा तक शिक्षित है और उम्र कुलजमा बाईस
बरस। गांव वाले उर्मिला को सरपंच बिटिया के नाम से पुकारते हैं। सरपंच उर्मिला बताती है कि यह बेजाकब्जा अनेक लोगों ने कर रखा था जिससे आवागमन के लिये रास्ता नहीं था। पद सम्हालने के बाद सबसे पहले वह इस कब्जे को हटाकर पक्का रास्ता बनवाना चाहती थीं। बेजा कब्जा तो हटा दिया गया है और अब पक्का रास्ता बनाने का काम भी जल्द ही शुरू हो जाएगा।
राज्य के पंचायतों में अधिकारों के लिये महिला सरपंच केवल लड़ाई नहीं लड़ रही हैं बल्कि वे कानून में प्राप्त अपने अधिकारों को पाने के लिये सजग और सर्तक हैं। हरदा जिले के ग्राम पंचायत पानतलाई की उम्रदराज पचास बरस की आदिवासी सरपंच ढापूबाई अक्षरज्ञान करने निकल पड़ी हैं। इस उम्र में पढ़ाई करने की जरूरत क्यों पड़ी के सवाल के जवाब में सरपंच ढापूबाई कहती हैं कि गांव के विकास की जिम्मेदारी सम्हालने के लिये साक्षर होना जरूरी है। सरपंच ढापूबाई एक अनुशासित छात्रा की तरह गांव के शासकीय पाठशाला में दाखिला लिया है। यही नहीं, सरपंच ढापूबाई प्रतिदिन नियमित रूप से सुबह ग्यारह बजे कक्षा शुरू होने के पूर्व पहुंच जाती हैं और सायं पांच बजे तक कक्षा छूटने तक वे अध्ययनरत रहती हैं। ढापूबाई की मंशा तो बचपन से ही स्कूल जाने की थी लेकिन कई कारण थे जो उनके मन की नहीं हो पायी। अब वे गांव की जनप्रतिनिधि हैं और इस नाते वे साक्षर होना जरूरी समझती हैं।
बदलाव के इस दौर की खास बात यह है कि चिरईडोंगरी की सरपंच सुषमा उइके, ग्राम पंचायत बरखेड़ा की उर्मिला चौधरी हो या ग्राम पंचायत पानतलाई की उम्रदराज पचास बरस की आदिवासी सरपंच ढापूबाई किसी की जिम्मेदारी को पूरा करने में न तो पति हस्तक्षेप करते हैं और न परिवार वाले। जो सरपंच निर्वाचित हुई हैं, वे ही अपनी लड़ाई लड़ रही हैं, जिम्मेदारी पूरी कर रही हैं। राज्य में पंचायतों के लिये शिवराजसिंह सरकार ने पचास फीसदी आरक्षण देकर न केवल महिलाओं का सम्मान किया है बल्कि उनके आत्मविश्वास को और मजबूत किया है। यह बदलाव इस बात का प्रमाण है। कोई शक नहीं कि राज्य के पंचायतों में बदलाव की यह बयार बताती है कि नये जमाने की ये नयी लीडर विकास की नयी कहानी लिखेंगी।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं मीडिया अध्येता हैं)
1 comment:
तेजस्विनी संवाद को नया स्वरुप देने के लिये बधाई, वैसे भी मनोज कुमार जी के आलेख पठनीय होते हैं। इस आलेख में जिस तरह के विचारों को प्रस्तुत किया गया है वह सभी के लिये ज्ञानवर्धक साबित होगा ऐसा मेरा विश्वास हैं।
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