महिलाओं को किताबों में कितना भी ऊंचा स्थान दिया गया हो परंतु समाज में उनकी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। जहां तक विभिन्न जनजातीय समुदायों में महिलाओं की स्थिति का प्रश्न है, उसे भी आदर्श नहीं कहा जा सकता।
हम जानते हैं कि जनजातीय समुदायों में समाज की संरचना एवं संचालन परंपराओं के आधार पर होता है। किन्तु परम्परा के प्रस्थान बिन्दु को चिन्हित करना बहुत ही कठिन कार्य है। परम्पराएं परिवर्तनशील होती हैं। उनकी आलोचना की जा सकती है; परन्तु, परम्पराशून्य होकर जनजातीय समुदाय स्वयं को जीवित नहीं रख सकते।
भारत में ज्यादातर जनजातीय समुदाय पितृ सत्तात्मक हैं। किंतु उत्तर-पूर्वी राज्यों के कुछ क्षेत्रों में मातृ सत्तात्मक परिवार पाए जाते हैं। मातृसत्तात्मक समुदायों में परिवार का नेतृत्व महिलाओं के पास होता है। उनके अधिकार और दायित्व पुरुषों से अधिक माने जाते हैं।
सामाजिक संरचना का जो भी स्वरूप हो, प्राय: सभी जनजातीय समुदायों में महिलाएं पुरुष की तुलना में अधिक श्रम करती हैं। वे परिवार की अर्थ-व्यवस्था की धुरी होती हैं और उनकी राय को महत्व दिया जाता है।
कुछ जनजातीय समुदायों में वधू मूल्य की परम्परा के कारण कन्या के जन्म को सकारात्मक भाव से देखा जाता है। क्योंकि, वधू मूल्य कन्या के पिता को प्राप्त होता है। वैसे यह आदर्श परंपरा नहीं है किन्तु जनजातीय समाज में कन्या भ्रूण हत्या का न होना इसकी एक बड़ी वजह है। जनजातीय विधवाओं के पुनर्विवाह को स्वीकृति दी जाती है। तलाक की स्थिति में भी विवाह करने की छूट है। जनजातीय समुदाय सदियों से जंगलों में रहते आए हैं। वे इन जंगलों के संरक्षण को लेकर बहुत सतर्क रहते हैं। इसमें महिलाओं की ही भूमिका अधिक होती है।
आदिवासी महिलाएं सांस्कृतिक एवं सामाजिक दृष्टि से सशक्त हैं। स्वावलम्बन उनका प्राकृतिक गुण है। किंतु आज जनजातीय महिलाएं अपने संक्रमण काल से गुजर रही हैं। सदियों से चली आ रही उनकी परंपराएं बदल रही हैं। बाहरी दुनिया से जनजातीय समुदायों का संपर्क तेजी से बढ़ा है। लेकिन दुर्भाग्यवश उनपर बाहरी दुनिया की अच्छाइयों का कम जबकि बुराइयों का अधिक प्रभाव पड़ रहा है। इससे महिलाएं भी अछूती नहीं हैं।
भीलों में वधू धन देने का रिवाज था। लेकिन अब वहां दहेज प्रथा का प्रचलन भी बढ़ रहा है। यह उनके गैर-जनजातीयकरण का नतीजा है। जनजातीय लड़कियों को अध्ययन के लिए सरकार की तरफ से कई सुविधाएं दी जा रही हैं। लेकिन, उपयुक्त वातावरण न मिलने के कारण उनके मन में हिचक है। ये परिवार एक प्रकार से अर्थ प्रधान हैं, क्योंकि जीविकोपार्जन की समस्या उनके लिए सबसे बड़ी है। इस कारण शिक्षा अब तक आदिवासियों की प्राथमिकता नहीं बन पायी है। पुरुष द्वारा कर्ज लेने की प्रवृत्ति के कारण भी महिलाओं की स्थिति पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। उन्हें भी परिवार के अन्य सदस्यों के साथ बंधुआ मजदूरी करने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
विभिन्न जनजातियों में लोग अपने लड़कों को विद्यालयों में और बाद में महाविद्यालयों में भेज रहे हैं। लेकिन, लड़कियों को भेजने के मामले में उतना उत्साह नहीं है। जनजातीय महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए जो भी रूपरेखा बनाई जाए, उसमें इस बात को अवश्य ध्यान में रखा जाए कि इन महिलाओं को भी नवयुग का सामना करना है। यहां रूढ़ियों और परम्पराओं में अंतर करना होगा। परम्पराएं एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होनी चाहिएं किंतु रूढ़ियों के मामले में ऐसा नहीं होना चाहिए।
विभिन्न जनजातियों में प्रचलित परम्परागत समाज संचालन विधियों का अध्ययन कर विसंगतियों व असमानताओं को दूर करने की दिशा में पहल की जानी चाहिये। विवाह, तलाक, पुनर्विवाह, परिवार की सम्पत्ति में हिस्सा, स्वयं द्वारा अर्जित आय को खर्च करने का अधिकार तथा परिवारिक प्रकरणों में महिलाओं की सहभागिता व उनकी सलाह को महत्व दिलाने की दिशा में एक ऐसी नीति बने जो न्यायोचित और वर्तमान समय की आवश्यकताओं के अनुरूप हो। वास्तव में हमें एक ऐसे माडल की तलाश करनी होगी जो भारतीय चिंतन से परिपुष्ट हो।
हम जानते हैं कि जनजातीय समुदायों में समाज की संरचना एवं संचालन परंपराओं के आधार पर होता है। किन्तु परम्परा के प्रस्थान बिन्दु को चिन्हित करना बहुत ही कठिन कार्य है। परम्पराएं परिवर्तनशील होती हैं। उनकी आलोचना की जा सकती है; परन्तु, परम्पराशून्य होकर जनजातीय समुदाय स्वयं को जीवित नहीं रख सकते।
भारत में ज्यादातर जनजातीय समुदाय पितृ सत्तात्मक हैं। किंतु उत्तर-पूर्वी राज्यों के कुछ क्षेत्रों में मातृ सत्तात्मक परिवार पाए जाते हैं। मातृसत्तात्मक समुदायों में परिवार का नेतृत्व महिलाओं के पास होता है। उनके अधिकार और दायित्व पुरुषों से अधिक माने जाते हैं।
सामाजिक संरचना का जो भी स्वरूप हो, प्राय: सभी जनजातीय समुदायों में महिलाएं पुरुष की तुलना में अधिक श्रम करती हैं। वे परिवार की अर्थ-व्यवस्था की धुरी होती हैं और उनकी राय को महत्व दिया जाता है।
कुछ जनजातीय समुदायों में वधू मूल्य की परम्परा के कारण कन्या के जन्म को सकारात्मक भाव से देखा जाता है। क्योंकि, वधू मूल्य कन्या के पिता को प्राप्त होता है। वैसे यह आदर्श परंपरा नहीं है किन्तु जनजातीय समाज में कन्या भ्रूण हत्या का न होना इसकी एक बड़ी वजह है। जनजातीय विधवाओं के पुनर्विवाह को स्वीकृति दी जाती है। तलाक की स्थिति में भी विवाह करने की छूट है। जनजातीय समुदाय सदियों से जंगलों में रहते आए हैं। वे इन जंगलों के संरक्षण को लेकर बहुत सतर्क रहते हैं। इसमें महिलाओं की ही भूमिका अधिक होती है।
आदिवासी महिलाएं सांस्कृतिक एवं सामाजिक दृष्टि से सशक्त हैं। स्वावलम्बन उनका प्राकृतिक गुण है। किंतु आज जनजातीय महिलाएं अपने संक्रमण काल से गुजर रही हैं। सदियों से चली आ रही उनकी परंपराएं बदल रही हैं। बाहरी दुनिया से जनजातीय समुदायों का संपर्क तेजी से बढ़ा है। लेकिन दुर्भाग्यवश उनपर बाहरी दुनिया की अच्छाइयों का कम जबकि बुराइयों का अधिक प्रभाव पड़ रहा है। इससे महिलाएं भी अछूती नहीं हैं।
भीलों में वधू धन देने का रिवाज था। लेकिन अब वहां दहेज प्रथा का प्रचलन भी बढ़ रहा है। यह उनके गैर-जनजातीयकरण का नतीजा है। जनजातीय लड़कियों को अध्ययन के लिए सरकार की तरफ से कई सुविधाएं दी जा रही हैं। लेकिन, उपयुक्त वातावरण न मिलने के कारण उनके मन में हिचक है। ये परिवार एक प्रकार से अर्थ प्रधान हैं, क्योंकि जीविकोपार्जन की समस्या उनके लिए सबसे बड़ी है। इस कारण शिक्षा अब तक आदिवासियों की प्राथमिकता नहीं बन पायी है। पुरुष द्वारा कर्ज लेने की प्रवृत्ति के कारण भी महिलाओं की स्थिति पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। उन्हें भी परिवार के अन्य सदस्यों के साथ बंधुआ मजदूरी करने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
विभिन्न जनजातियों में लोग अपने लड़कों को विद्यालयों में और बाद में महाविद्यालयों में भेज रहे हैं। लेकिन, लड़कियों को भेजने के मामले में उतना उत्साह नहीं है। जनजातीय महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए जो भी रूपरेखा बनाई जाए, उसमें इस बात को अवश्य ध्यान में रखा जाए कि इन महिलाओं को भी नवयुग का सामना करना है। यहां रूढ़ियों और परम्पराओं में अंतर करना होगा। परम्पराएं एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होनी चाहिएं किंतु रूढ़ियों के मामले में ऐसा नहीं होना चाहिए।
विभिन्न जनजातियों में प्रचलित परम्परागत समाज संचालन विधियों का अध्ययन कर विसंगतियों व असमानताओं को दूर करने की दिशा में पहल की जानी चाहिये। विवाह, तलाक, पुनर्विवाह, परिवार की सम्पत्ति में हिस्सा, स्वयं द्वारा अर्जित आय को खर्च करने का अधिकार तथा परिवारिक प्रकरणों में महिलाओं की सहभागिता व उनकी सलाह को महत्व दिलाने की दिशा में एक ऐसी नीति बने जो न्यायोचित और वर्तमान समय की आवश्यकताओं के अनुरूप हो। वास्तव में हमें एक ऐसे माडल की तलाश करनी होगी जो भारतीय चिंतन से परिपुष्ट हो।
-आशा शुक्ला
www.bhartiyapaksh.com से साभार
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