संजय तिवारी
अलगोर के पर्यावरणविद बनने से बहुत पहले अमरीका में एक किताब चर्चित और बेस्टसेलर हो चुकी थी। अनसस्टेनबल ग्लोबल वार्मिंग–इवरी 1500 इयर्स। किताब जो खाका खींचती है वह अभी तक चले उपनिवेशवादों में सबसे भयावह होगा। कल्पना करिए। आप ऐसा जीवन जीते हैं जिससे पर्यावरण को कम नुकसान पहुंचाते हैं। तो कार्बन कारोबार में आप हमेशा सरप्लस में रहेंगे। लेकिन इस कार्बन क्रेडिट का आप क्या करेगें। जाहिर सी बात है कि आप ऐसा कुछ नहीं करना चाहेंगे कि आपकी कार्बन कमाई में कमी आये। ऐसे में वह व्यक्ति आपसे संपर्क करेगा जो अपना कार्बन क्रेडिट खो चुका है। आपसे कहेगा कि अगर आप अपनी कार्बन कमाई का इतना हिस्सा मुझे दे दें तो बदले में आपको इतना पैसा दे दूंगा। आप उसे अपना कार्बन क्रेडिट दे देते हैं और वह व्यक्ति फिर से उसी जीवनशैली को जीने लगता है जिसके कारण पर्यावरण की समस्या पैदा हुई है।व्यक्तिगत स्तर पर ऐसा होने में हो सकता है कि अभी कुछ साल लगे लेकिन राष्ट्र और राष्ट्र के भीतर राज्यों के स्तर पर इसकी शुरूआत हो चुकी है। वर्ल्ड बैंक ने 1000 मिलियन का फण्ड तैयार किया है जो उन देशों को दिया जाएगा जिनके यहां पर्यावरण सुरक्षित है। इण्डोनेशिया, चिली और भारत जैसे देशों को यह आफर किया भी जा चुका है। भारत के एक पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश ने केंद्र सरकार से मांग की है कि पर्यावरण संरक्षण के लिए उसे कार्बन क्रेडिट के तहत पैसा मिलना चाहिए। इस तरह की मांग भी बढे़गी और चलन भी। व्यक्ति के स्तर पर क्रेडिट कार्ड बनाकर कार्बन की कमाई होने में हो सकता है अभी थोड़ा और समय लगे।ल्ेकिन ऊपर से चमकदार और पर्यावरणवादियों के सम्मान जैसा लगनेवाला यह तरीका दो संकेत करता है। पहला संकेत। अमेरिका का प्रभुत्व कायम रहेगा और अमरीका का राष्ट्रपति ही दुनिया का असली प्रशासक होगा। अमरीका ही तय करेगा कि दुनिया के किस हिस्से में जंगल लगाना चाहिए और किस हिस्से में उघोग। ग्वाटेमाला में अमेरिकियों ने इसकी शुरूआत भी कर दी है। वहां अमरीकी सरकार ने अपने खर्चे पर जंगल लगाने का काम किया है। दूसरा संकेत। अमरीकी और यूरोपीय मित्न राष्ट्रों की जीवनशैली में कोई बदलाव नहीं आयेगा। औसत अमेरिकी नागरिक 23 टन वार्षिक कार्बन उत्सर्जन का दोषी है और अगर कार्बन क्रेडिट की नीति कामयाब हो जाती है तो अमरीकी नागरिक को अपने कार्बन उत्सर्जन पर रोक लगाने की जरूरत नहीं होगी क्योंकि उसके हिस्से का पर्यावरण कोई और देश बचाएगा। सरल शब्दों में कहें तो यह कार्बन ट्रेडिंग है। तीसरी दुनिया की अधिकांश सरकारें दो कारणों से इस कार्बन ट्रेडिंग की आ॓र ललचायी नजरों से देख रही है। एक पर्यावरण सुरक्षित रह गया तो इसे वे अपनी कमाई का जरिया बना सकती है। दो, दुनियाभर के विकसित देशों द्वारा कुछ ऐसे उघोग धन्धे तीसरी दुनिया के आ॓र शिफ्ट होंगे जो अत्यधिक जहरीले होंगे और पानी की ज्यादा खपत करते है। भारत इस पूरे मामले में बहुत लचर रूख अपनाए हुए है। आईपीसीसी की रपटें घोषित तौर पर अमरीकी एजेण्डा का हिस्सा होती है। आर के पचौरी का आईपीसीसी अध्यक्ष बनना ही एक लाबिंग का हिस्सा था और खुद जार्ज बुश ने उनके नाम का अनुमोदन किया था। आर के पाचौरी प्रेम के निहितार्थ यह है कि पचौरी इतने लोचदार है कि किसी भी मुद्दे पर आप जैसा चाहें उनसे वैसा समर्थन हासिल कर लें। कचरे से बिजली बनाने के मुद्दे पर टेरी संदेह व्यक्त करता है फिर भी उसकी अनुसंशा कर देता है। पचौरी की टेरी ऐसा क्यों करती है इसे समझना मुश्किल नहीं है। भूमंडल के बढ़ते तापमान को कम करना जरूरी है लेकिन उससे ज्यादा जरूरी है आदमी के दिमाग के तापमान को ठीक रखना। ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए जिस कार्बन ट्रेड का रास्ता चुना गया है वह दोषियों को निर्दोष साबित करेगा और दुनिया में गुलामी की नयी परिभाषा स्थापित करेगा। तीसरी दुनिया के देश आज जिस भूमंडलीकरण की चुनौतियों से लड़ने की कवायद में दोहरे हुए जा रहे हैं वे उससे उबर भी नहीं पायेंगे कि एक नया दौर शुरू हो जाएगा जो नयी लड़ाई की घोषणा कर देगा। कार्बन ट्रेड उसी संभावित लड़ाई की पृष्ठभूमि है। पर्यावरण असंतुलन के सबसे ज्यादा जिम्मेदार अमेरिका और जापान जैसे देश हैं लेकिन कार्बन ट्रेड की आड़ में अब वही पर्यावरण बचाने का राग अलाप रहे हैं। इस संभावित षड़यंत्र को कितने लोग भांप रहे हैं, कुछ पता नहीं।
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