- मदर्स डे -मुझे औरतों का जोर से बोलना पसंद नहीं है, तुम लड़की हो शाम को अकेले मत जाओ, मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा, मैं तुम्हारा भाई हूँ, तुम्हारा भला बुरा मुझसे अच्छा और कौन समझेगा, इन लड़कियों का काम छोटे छोटे कपडे पहने बिना चलता नहीं है क्या, पूरे कपडे पहनने मैं शर्म आती है क्या, ये औरतें चुप नहीं रह सकती हैं क्या, औरतों को अपनी हद में ही रहना चहिये, शर्म औरत का गहना होता है, औरत हैं तो औरत जैसा ही व्यवहार करना चाहिए, मैं पैसा कमा के लाता तो हूँ तुम सिर्फ घर का काम देखो, और ये भी बताइए कि क्या रसोई में काम करना कोई मर्दों का काम होता है, आदि आदि.......
ये वे जुमले हैं जो अक्सर महिलाओं के सन्दर्भ में या उन्हें संबोधित करके कहे जाते हैं. ये समाज की स्वाभाविक सोच की प्रतिक्रिया है. क्योंकि ये सब सदियों से हमारे खून में शामिल है और कई पीढ़ियों से यह सब घोंट-घोंट कर पिलाया भी जा रहा है. दरअसल महिलाओं के प्रति हमारा दृष्टिकोण कुछ मनावैज्ञानिक भ्रम का शिकार है, पुरुषत्त्व की श्रेष्ठता का भान होना भी उसी का एक रूप है. लेकिन अगर पिछली तीन चार पीढ़ियों का लेखा-जोखा देखें तो इस सोच में बदलाव भी आये है. हर नयी पीढ़ी अपनी पुरानी पीढ़ी से बेहतर सोच वाली साबित हुई है. उन्होंने अपने आचार व्यवहार में महिलाओं के प्रति एक अलग सोच को सामने रखा, लेकिन सत्य यह भी है कि उन्हें अपने बड़ों से इस बदलाव के लिए टकराव भी मोल लेना पड़ा.
आज बदलाव का युग है, वो भी इस तेजी से कि कई बार लगता है कि एक जीवन में ही तीन चार पीढ़ियों के बदलाव हो रहे है. जाहिर है तेजी से बदलती दुनिया में हमारी सोच और सरोकार भी तेजी से बदल रहे हैं. अब समय आ गया है कि हर किसी को अपनी सोच ओर अपनी विचार को भली भांति परख लेना होगा. ये बात महिलाओं और पुरुषों दोनों पर लागू होती है. हमें अपनी सोच का दायरा बढ़ाते हुए महिलाओं के असल मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना होगा, जो हमारे अवचेतन में भी शामिल कर दिए गए है. ये सभी मुद्दे सांस्कृतिक और सामाजिक हैं, जिनपर नए सिरे से मंथन किया जाना चाहिए. चाहे वे तथाकथित मर्दानगी और पुरुषत्त्व से जुड़े हुए मुद्दे ही क्यों न हों. आज महिलाओं के मुद्दों और सरोकारों पर कहीं अधिक संवेदनशील होने और परिपक्वता दिखाने की आवश्यकता है. बालिका के जन्म से लेकर उसके युवा होने और युवा से बुजुर्ग होने तक उन्हें हर वाजिब हक की पैरवी हमें करना होगी. ये बहुत आसान है, बस हमें अपनी सोच में बदलाव लाना होगा.
असल में भले ही दुनिया कितनी भी तेजी से बदली हो हमारा महिलाओं के प्रति मानदंडों में खास बदलाव नहीं आया है. जबकि आज अत्यधिक संवेदनशीलता और खुला दिमाग चाहिए. विकास की गति हमें चेता रही है कि अब ये लंबे समय तक चलने वाला नहीं है, क्योंकि अब महिलायें और आज की पूरी पीढ़ी जिस तेजी से विकास परिद्रश्य में अपनी भूमिका निभाने को तैयार हो रही है, उनके लिए रास्ता न देना पूरी मानवता का भी अपमान है. वैसे ये चेतावनी भी है उन लोगों के लिए जो आज भी ऋणात्मक सोच के साथ जी रहे है.
संजीव परसाई, राज्य प्रबंधक संचार और ज्ञान
तेजस्विनी कार्यक्रम









