नंदन नील्केड़ी की किताब imagining India से अनुवादित अंश
हममें से अधिकतर लोग यह सोचकर जीते हैं, जैसे इस धरती पर हमारा अस्तित्व सदा के लिए बना रहेगा। बेरोजगारी, बीमारी और लगातार बूढ़े होते जाने के बार में हम शायद ही सोचते हैं। चेहरों की झुर्रिया, ढीली होती त्वचा, चरमराते घुटने और कमर, जैसी शारीरिक समस्याओं पर आखिर कौन अपना सिर खपाता है। जब हम युवा होते हैं तो ऐसी चीजों के बारे में सोचना वक्त बरबाद करना लगता है। डॉ. फेल्डस्टिन का कहना बिल्कुल सही है कि भारत में सामाजिक सुरक्षा एक बड़ी चुनौती है। जब आप बिल्कुल युवा होते हैं तो शायद ही भविष्य में स्वास्थ्य में गिरावट और दूसरी समस्याओं के बार में सोचते हैं। भारत की आबादी के स्वरूप पर गौर करें तो पाएंगे कि यह काफी युवा देश है। औसत उम्र 25 के आसपास है। अधिकतर लोगों के लिए यह बेहद अच्छा समय है। इसलिए ऐसी चीजों पर सोचने की जरूरत नहीं पड़ती। इस युवा शक्ति की वजह से ही सरकार के पास पर्याप्त नकदी है। उसका खजाना लबालब भरता जा रहा है। लेकिन वक्त को आप थामे नहीं रह सकते। यही वजह है कि सरकार ने अब सामाजिक सुरक्षा और इससे जुड़ी तमाम चीजों के बारे में सोचना शुरू कर दिया है। आज भी हमारे लोकप्रिय मंत्री से लेकर प्रोफेसरनुमा राजनीतिक नेता उन लोगों की समस्या पर अपना ध्यान केंद्रित किए हुए हैं, जो उनके हिसाब से युवा मतदाताओं की श्रेणी में आते हैं। चुनावी वादों में से अधिकतर रोजगार मुहैया कराने और सब्सिडी खत्म करने से जुड़े होते हैं। बच्चों और बुजुर्गो के प्रति राजनीतिक सरोकार की कमी साफ दिखती है। काफी बाद में यानी अब जाकर भारत सरकार को लगता है कि मानव पूंजी को मजबूत करने की जरूरत है। इसीलिए बच्चों के लिए, मसलन शिक्षा और स्वास्थ्य पर काफी सामाजिक निवेश हो रहा है। हेल्थकेयर कार्यक्रमों को फंड मिल रहे हैं और इन पर काफी ध्यान दिया जा रहा है। लेकिन अब भी हमारे मंत्री और मतदाता, दोनों बुजुर्गो की बेहतर जिंदगी से जुड़े कार्यक्रमों की अनदेखी कर रहे हैं। हमारा सरोकार सिर्फ संगठित क्षेत्र में पेंशन कार्यक्रमों तक सीमित है। बुजुर्गो के प्रति हमारे विचार बेहद उलझे हुए हैं और इन पर हमारे लोकाचार और संस्कृति का काफी असर है। भारतीय समाज में यह माना जाता है कि बुजुर्गो की देखभाल की जिम्मेदारी उनके बच्चों पर है। इसलिए जब कोई सार्वभौम और सतत पेंशन नीति की बात आती है, तो निराशा ही हाथ लगती है। जब बुजुर्गों की माली और सामाजिक सुरक्षा की बात आती है तो हम अपने लोकाचार और संस्कृति पर गर्व कर सकते हैं। भारतीय परिवारों में उनकी बेहतर देखभाल की जिम्मेदारी नई पीढ़ी पर होती है। दरअसल भारतीयों के बीच इस विचार की लंबी परंपरा है कि परिवार एक सक्षम इकाई की तरह आगे बढ़ता रहेगा। इसकी परिकल्पना इस वाह्य जगत के केंद्र के तौर पर की गई है। औपनिवेशक शासन की पृष्ठभूमि में देखें तो सार संत्रास के बाद परिवार ही एक राहत की जगह नजर आती थी। यही वह जगह थी जो बाहरी दुनिया के झंझावतों से राहत देती थी और लोगों का ध्यान रखती थी। हमारे यहां परिवार के बुजुर्गों की देखभाल एक लंबी परंपरा रही है। यह हमारी एक अहम जिम्मेदारियों में से एक मानी जाती है। बजुर्गो के प्रति अवहेलना और उनका ध्यान न रखने की बात हमार यहां भारी लोकनिंदा और शर्म का विषय बन जाती है। लॉरेंस कोहेन भारतीयों की इस परंपरा को रेखांकित करते हुए बॉलीवुड में बनी दीवार से लेकर वास्तव जैसी फिल्मों का हवाला देते हैं। इन फिल्मों में बुजुर्गो के प्रति अपनी असीम जिम्मेदारी का भान कराया गया है। सत्तर के दशक में बॉलीवु़ड की चरित्र अभिनेत्री निरुपा राय ने काफी फिल्मों में मां का किरदार अदा किया था और उन्हें खासी लोकप्रियता भी मिली थी। भारत सरकार और नागरिक लंबे समय से इस बात पर एकमत हैं कि बुजुर्गो की देखभाल की जिम्मेदारी उनके बच्चों की है। इसी सोच की वजह से शायद एशिया में खासकर भारतीय समाज में बेटों की चाहत बढ़ती गई है। ज्यादातर परिवारों का यह मानना होता है कि वित्तीय, भावनात्मक और सामाजिक सहारे के लिए बेटे का होना जरूरी है।-----नंदन नीलकनी
बिजिनेसभास्कर से साभार
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